१७० ॥ श्री जनक पुरी जी ॥
दोहा:-
आदि शक्ति श्री जानकी प्रगटीं गोद में आय।
नाना बिधि लीला कियो बाल रूप में माय।१।
चौपाई:-
सृष्टि क उत्पति पालन करना। सब जीवन के उदर को भरना।१।
ये सब कार्य मातु आधीना। पल लागत भर में सब कीन्हा।२।
भृकुटी ऊपर सबै नचावैं। सुर नर मुनि कोइ भेद न पावैं।३।
राम सिया सब के हैं स्वामी। निर्गुण सर्गुण रूप नमामी।४।
दोहा:-
जनकपुरी की बिनय यह, सब से शीश नवाय।
भजहु राम सिय हर्षि हिय, आवागमन नशाय॥
राग अद्धा:-
हरि को क्यों बिसारे मेरी मतिया।
काम क्रोध मद लोभ मोह की पहिराये मन को सुतिया।
झूट कपट निद्रा औ आलस्य माया द्वैत की भइ कुतिया।
सँभरि कै बैठु चेत करु घर का पहिरु दीनता की नथिया।
बाद बिबाद त्यागु सब प्यारी धुनि सुनि नाम कि दिन रतिया।५।
शान्ति शील संतोष छिमा औ सरधा दया कि लै खटिया।
सत्य प्रेम पद प्राप्ति होय तब हर दम निरखौ राम सिया।
चलै अखण्ड रकार की चक्की अनहद बाजैं बहु बिधिया।
ध्यान में नाना लीला निरखौ लय में रहे न सुधि बुधिया।
निर्भय बैर भाव सब छूटै तन गुदरी तब हो सुखिया।१०।
परमानन्द रहौ तब सुन्दरि एकै रस में जब पगिया।
सौदा नाम खरीदौ जियतै जाय उजरि एक दिन हटिया।
रोये चुकिहै नहीं अन्त में जब यम आय गहैं चोटिया।
प्राण निकासि चलैं लै यम पुर तन पर लोह कि दै सटिया।
कल्पन हाय हाय चिल्लावो सुमिरन बिन हो यह गतिया।
जनक पुरी कहैं बन्धन छूटै मान जाव जो मम बतिया।१६।