१७९ ॥ श्री गुरु दीन दास जी ॥
ग़ज़ल:-
कब तक छिपे रहोगे ढूँढूँग मैं न मानूँ।
तन मन व प्रेम तीनो एकै में कसि के सानूँ।
हिम्मत न हारूँगा मैं जब तक मही औ भानू।
झलकी दिखा लुभाया फिर क्यों भला न जानूँ।
तव नाम का हि ताना दिन रैन श्याम तानूँ।
गुरु दीन दास कहते यह एक टेक ठानूँ।६।