१९९ ॥ श्री कीचक जी ॥
चौपाई:-
पाप कर्म मेरे मन जागा। जाय द्रोपदी ते रति मांगा।१।
कह्यौ द्रोपदी मम हित बानी। नहिं मान्यौं मद में सुख जानी।२।
गयों फेरि निज भगिनी पासा। कामातुर लज्जा करि नासा।३।
कह्यों करौं या से रति भगिनी। काम कि दहत है तन मन अग्नी।४।
दोहा:-
रानी तब वैराट की, हम से कह्यो सुनाय।
रक्षक हैं गन्धर्व यहि, पांच मानिये भाय॥
चौपाई:-
हमै भेद सब दियो बताई। सो हम तुम्हैं दीन समुझाई।१।
मारैं तुम्हैं बचै नहिं पैहो। धर्म जाय औ तनहि नसैहौ।२।
जैसा होनहार है होता। वैसे बुद्धि लगावै गोता।३।
मेरे तन मन कुछ न विसायो। लौटि के द्रुपद सुता ढिग आयों।४।
सोरठा:-
मांग्यों रति का दान, कह्यो काल्हि निशि आइये।
राखौं तेरो मान, मम तन ते सुख पाइये॥
चौपाई:-
अर्द्ध रात्रि के समय में भाई। पहुँचि गयो मैं निर्भय जाई।
सोय रहे सब नर औ नारी। छाई नगर में सुन्ना कारी।
फाटक खुला भवन का देखा। उपजा उर में हर्ष बिशेषा।
बरैं दीप सुन्दर उजियारी। निशि चौदस की थी अँधियारी।
सब दीपन को दिहेंव बुझाई। द्रुपदी भवन में पहुँच्यों जाई।५।
वहां क दीप बुझायों नाहीं। सांची कहौं भ्रात तुम पाहीं।
तहां भीम बैठो बनि दारा। भूषण बसन बिचित्र सँवारा।
मैं यह भेद जानि नहिं पावा। दोनो कर गहि उर में लावा।
पकरयौ कर कसिकै जब मेरो। तब मैं जान्यौं है कछु फेरो।
बैठेपर तहँ भई लड़ाई। फिर भीतर ते आँगन जाई।१०।
ह्वै कर खड़े लड़ेन हम भाई। दुइ घण्टा तक खूब अघाई।
भीम मोहिं तँह पटकि के मारा। शिर मरोरि तुरयो महि डारा।
चढ़ि बिमान मैं हरि पुर धायों। अधरम का फल उत्तम पायों।१३।
दोहा:-
धन्य श्याम के दास हैं मारैं दें हरिधाम।
जे हर दम सुमिरन करैं तिनके संग में श्याम॥
सोरठा:-
कीचक कहैं सुनाय हरि के भक्त कि यह कथा।
समझै तो बनि जाय रहे न तन मन कछु ब्यथा॥