२०७ ॥ श्री सुबाहु जी ॥
दोहा:-
पावक शर से मारि हरि तन मन कीन्ह्यों क्षार।
दिव्य रूप ह्वै यान चढ़ि गयों बिष्णु दरबार॥
सोरठा:-
कहैं सुबाहु सुनाय ऐसे राम कृपालु जी।
बिगरी देत बनाय दनुज नाग खग भालु जी।१।
मृग बानर गति दीन राम गरीब नेवाज जी।
सुमिरैं ते परवीन होय भक्त शिर ताज जी।२।