२३१ ॥ श्री भोला नन्द जी ॥
दोहा:-
विष का अमृत होत है अमृत का बिष होय।
हरि की लीला अगम है जानि न पावै कोय।१।
जे हरि सुमिरन नहिं करैं तिन को समझो कूर।
जे सुमिरन में लगे हैं बैठें जाय हजूर।२।
जियते हरि दर्शायँ जब तब निर्भय ह्वै जाय।
राम नाम खुलि जाय जब हर दम तान सुनाय।३।
दृष्टि ते होय अदृष्टि तब शून्य में जाय समाय।
अनुभव की परमान यह, भोला नन्द बताय।४।