२३० ॥ श्री निद्रा देवी जी ॥
चौपाई:-
हरि सुमिरन में जे मन लावैं। तिनहिं निरखि हम शीश नवावैं।
ना सोवैं ना सोवन देवैं। हम हूँ को कायल करि देवैं।
दहिनी बाईं करवट लेते। नैन मूँद मोंहि धोका देते।
होंय उतान कबहुँ हरषाई। ध्यान करैं तन मन को लाई।
देखैं हरि के चरित मनोहर। पढ़ा सुना जो नहीं कहीं पर।५।
अकथ अलेख कौन लिखि पावै। सुर मुनि कोई पार न पावै।
लय में पहुँचि जाँय फिर मानो। नहिं जहँ रूप नाम जप ध्यानो।
निर्गुण में निर्गुण ह्वै जावै। सुधि बुधि रहै न क्या बतलावै।
भक्तन की यह निद्रा भाई। जामे परम शक्ति सब गाई।
उतरैं सुनै नाम धुनि प्यारी। हर दम निरखैं अवध बिहारी।
उनको हम केहि भांति सोवावैं। हर दम हरि संग वै दुलरावैं।११।
दोहा:-
देंय हाजिरी आय हम, वै हमरे वश नाहिं।
निद्रा देवी नाम मम, सांचि कही तुम पाहिं॥