२३४ ॥ श्री उद्दालक ऋषि जी ॥
जारी........
अपनी नारी त्यागि जे चलते। ते फिरि आय पाप यहँ करते॥
पर दारा पर सुत संग नेहा। जे जन करैं ते होवैं खेहा॥
तरुण अवस्था इन्द्रिन साधन। बिन गुरु होय न हरि आराधन।५०।
लड़िकन ढिग संतन को आसन। सुर मुनि बेद न कीन्हयो भाषन॥
छोट बन्यो सो बड़ा कहायो। सुर मुनि बेद शास्त्र यश गायो॥
मन ही मन हरि सुमिरन करिये। पन्थ चलत जप माल न करिये॥
या से हरि खुश होंय न भाई। जगत रिझाये नहीं भलाई॥
दम्भ कपट पाखण्ड को त्यागौ। निर्मल ह्वै हरि नाम में लागौ।५५।
नाम कि जप की बिधि जिन जानी। तिनको मिलिगे शारंग पानी॥
धुनि खुलि जाय नाम की सुन्दर। ररंकार जो होत निरन्तर॥
सीता राम को हर दम चितओ। तन मन छबि सागर में भिजवो॥
हैं सब में औ सब से न्यारे। जानत है कोइ जानन हारे॥
या मारग गुरु से लै साधौ। तन के चोर सबै कसि बांधौ।६०।
सुरति शब्द यह मार्ग कहावा। सुर मुनि सब जग हेतु चलावा॥
भोजन बसन अधिक नहि होवै। सो समाधि में जाय के सोवै॥
या से सुलभ मार्ग नहि कोई। भाग्य होय बड़ि पावै सोई॥
एक बार भोजन को करिये। होय न आलस्य हरिहि सुमिरिये॥
काम क्रोध लालच में परिके। कैसे सेवक बनिहौ हरि के।६५।
मान अपमान हर्ष औ शोका। सुख दुख हानि लाभ दुइ ढोका॥
समय पाय कै मूँदै उघरै। जब तक प्राण न तन ते निकरै॥
जो कोइ भजन कि बिधि को जानै। सोई इनको सम कर मानै॥
अन्धे ज्ञान ते भवि नहि तरिहौ। जाय नर्क में कल्पन सरिहौ॥
आँखी कान खुलैं जब भाई। तब हरि के ढिग पहुँचै जाई।७०।
वही उपासक पक्का जानो। पायो नाम रूप मन मानो॥
राम रसिक ता को श्रुति भाखै। हर दम नाम रूप रस चाखै।७२।
सोरठा:-
करि तन मन विश्वास, बचन गहै सतगुरु के।
सो ह्वै जावै पास सर बरि हो सतगुरु के॥
दोहा:-
उद्दालक कहैं बचन मम, मानि जपौ हरि नाम।
मुक्ति भक्ति जियतै मिलै, जाओ हरि के धाम॥