२३४ ॥ श्री उद्दालक ऋषि जी ॥
कथा सुनै जे प्राणी जावैं। माला जपै न जीभ डुलावै॥
सुनै चरित तन मन को बारी। लागि जाय तब प्रेम की तारी॥
दर्शै तहँ पर श्री धनुधारी। बाम भाग श्री सीता प्यारी॥
लक्ष्मी सहित बिष्णु जग पालन। राधे सहित नन्द के लालन॥
शक्तिन सहित देव मुनि लखिये। यह अनुपम रस कथा में चखिये।५।
माला जपै कथा में जावै। ना जप होय न हरि यश पावै॥
मन चंचल यह एकै भाई। दोनौ ओर से देय भगाई॥
या से नाम सिद्ध नहि होवै। कथा व जप दोनौ ते खोवै॥
जप एकान्त में बैठि के करिये। मन एकाग्र हो प्रेम में भरिये॥
सन्मुख अद्भुत झांकी आवै। नाना बिधि के खेल देखावैं।१०।
तब जप सुफल होय यह भाई। कर्म लिखा बिधि सो मिटि जाई॥
माला की सुधि रहै न तनकौ। जब स्थिर करि लेहौ मन को॥
कर में है कि अवनि में सोहै। जानि न पैहौ मन छबि मोहै॥
अठोतरी जप माल सुमिरिनी। पर मानिक सुर मुनि सब बरनी॥
सहस एक दुइ का कहुँ भाई। सुर मुनि बेद शास्त्र नहिं गाई।१५।
मन मानी करते मन मुखिया। कैसे होंय भला वै सुखिया॥
राम नाम अनमोल मनी को। खेल बनाय के भयो धनी को॥
चरन पादुका जूता पहिने। तुलसी माल लिये कर दहिने॥
पैरन तले जीव बहु मारैं। तनकौ मन यह नहीं विचारैं॥
घर में तूल के बसन न पायो। यहां रेशमी ऊनी भायो।२०।
माला झोरी गले में डारे। बिथिन में बनि घूमैं प्यारे॥
बातैं करैं व माला फेरैं। इधर उधर दोउ नैनन हेरैं॥
चकर मकर का देखव भाई। बुद्धि बिगाड़ देय दुख दाई॥
या से खुलैं न लोचन हिय के। जप में भेद परयौ सिय पिय के॥
नीक कहैं ते लगै बेकारा। तन मन ते उठि गई बिचारा।२५।
दर्पन में करिखा बहु लागा। हंस श्वेत त्थे बनि गे कागा॥
सत्संगति में कबहुँ न जावैं। बिषय बासना में हर्षावैं॥
श्री महराज कहै कोई आई। सुखी होंय मानो निधि पाई॥
श्री महराज को चीन्ह्यो नाही। झूठै मन ही मन हर्षाहीं॥
काम क्रोध मद लोभ मोह के। बनिगे चेला आय द्रोह के।३०।
ऊपर ते तो ज्ञानी बनते। पैसा छूटत नहि तन मन ते॥
पर दारन के मूत्र पात्र पर। मन हर दम रहता है तत्पर॥
जस मोरी तुमरे गृह जानो। वैसे है औरन गृह मानो॥
इन्द्री नित्य कर्म हित भाई। नर नारी सब जीवन पाई॥
नारि पुरुष को संगम भाई। एक मास पर सुर मुनि गाई।३५।
अपनी नारि अपन ही पति हो। नाहीं तो यम पुरी कुगति हो॥
बने बिरक्त आय गृह छोड़ा। ज्ञान बिराग से मुख को मोड़ा॥
बिषय बासना संग न छोड़ै। कैसे राम नाम धन जोड़ै॥
सुर मुनि थोड़ै ऐसै भाई। जिन संग बाम नहीं सुखदाई॥
भजन में कोई बिघ्न न आवै। सुमिरै राम नाम सुख पावै।४०।
नारी ढाल असि पुरुष है मानो। रोकै वार अस्त्र को मानो॥
काम कृशानु बड़ा दुख दाई। बिरलै शूर कोई ठहराई॥
साधु क भेष बनायो आला। गले में कण्ठी चन्दन माला॥
कपट कतरनी उर में सोहै। कतरि दीन शुभ वस्तुन को है॥
करि बारीक दीन अस तिनको। जुड़ना मुश्किल है अब उन को।४५।
दीन भाव आवै जुड़ि जावै। आप को मेटै सब बिलगावै॥
झगड़ा करि जे गृह ते आवैं। साधू बनैं सुःख नहि पावैं॥
जारी........