२५१ ॥ श्री निहाल दास जी ॥
गारी:-
चारि पदारथ देन हार यह नर तन सुर मुनि गाई जी।
बिन सत्संग जात है बिरथा पुनि पुनि गोता खाई जी।
काम क्रोध मद लोभ मोह यह असुर बड़े दुखदाई जी।
पांचों संस्कार ये जानो तन में रहत सदाई जी।
दम्भ पखण्ड कपट औ निद्रा आलस संघ जम्हुआई जी।५।
माया द्वैत बासना नाना संग मन नाचै जाई जी।
चिंता तन में चिता लगावै दुख चढ़ि बैठै आई जी।
यह समाज आसुरी वंश की थकै न नेकौ भाई जी।
महा जाल में फांसि लेत औ नर्क को देय पठाई जी।
शान्ति शील संतोष दीनता प्रेम क हाल सुनाई जी।१०।
क्षिमा दया सरधा औ हिम्मति सत्य समाधि लगाई जी।
ज्ञान बिराग संग विश्वासौ लय में पहुँचौ धाई जी।
परस्वारथ परमारथ दोनो कैसे कोउ करि पाई जी।
देवासुर संग्राम जीतिये घट ही में चमकाई जी।
हरि सुमिरन बिन जीति न पैहौ सुनिये सब मम भाई जी।१५।
सतगुरु करि सुमिरन बिधि जानौ तब मन वश ह्वै जाई जी।
नाम खुलै हरि दर्शन लागैं खल सब चलैं पराई जी।
ध्यान समाधि में पहुँचि जाव जब कर्म भर्म मिटि जाई जी।
सबै देव मुनि संग बतलावैं हर्ष न हृदय समाई जी।
दास निहाल सुरति औ शब्द क मारग अति सुखदाई जी।२०।