२५२ ॥ श्री बिभाण्डक ऋषि जी ॥
दोहा:-
कश्यप आय के मनु भये, मनु भे दशरथ जान।
विभाण्डक ऋषि कहैं मम बचन, सत्य लीजिये मान॥
चौपाई:-
अदिती को सतरूपा जानो। सतरूपै कौशिल्या मानो॥
दोहा:-
दशरथ जनमें मधुपुरी, नाम भयो बसुदेव।
कौशिल्या देवकी भईं, सुर मुनि जानत भेव।१।
राम कृष्ण के नाम ते, तहां लीन औतार।
धरणी को दुख सब हरयौ, कीन्हयो चरित अपार।२।
चौपाई:-
बारह कला से श्री धनुधारी। प्रगटे अवध भार महि टारी।
सोरह कला से मुरली धारी। प्रगटे श्री मधु पुरि मँझारी।
श्री बसुदेव प्रयाग में आये। श्रुति निधान तँह नाम कहाये।
बिप्र वंश में परम कुलीना। बेद शास्त्र में रहे प्रवीना।
श्री देवकी मुर्बी नामा। पति आज्ञा में अर्प्यो यामा।५।
तिनके प्रगटे हरि सुखदाई। रामानन्द नाम भा आई।
चारी पदारथ बांट्यौ जग में। द्वादश शिष्य रँगे निज रँग में।७।
दोहा:-
नव द्वीप में नन्द जी जन्म लीन फिर आय।
नाम भयो जगन्नाथ तँह द्विज कुल जानो भाय॥
चौपाई:-
यशुमति तहां शची कहवाई। पतिव्रता सुनिये सुखदाई॥
गीताचार्य्य कृष्ण भगवाना। तिनते प्रगट भये जग जाना॥
सर्गुण यश को कीन प्रचारा। छायो मंगल सब संसारा॥
गृह गृह के नर सुत औ नारी। करैं कीरतन तन मन वारी॥
गौराङ्ग कृष्ण चैतन्य निमाई। कहि सब जय जय बोलैं भाई।५।
श्री बलदेव को कहैं निताई। श्री कृष्ण को कहैं निमाई।
झुण्ड के झुण्ड जहाँ तँह गावैं। सुर मुनि लखि लखि कै हरषावैं।
बाजैं संग में बहु बिधि बाजा। आपन आपन लिहे समाजा।
हरि यह खेल जक्त हित करहीं। पढ़ि सुनि प्राणी भव निधि तरहीं।
तन मन प्रेम लागि जब जावै। तब कीरतन में आनन्द आवै।१०।
सन्मुख श्याम राधिका राजैं। सखा सखी सब संग बिराजैं।
बिबिध भांति के चरित देखावैं। कहैं बिभाण्डक बरनि न जावैं।१२।