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२५८ ॥ श्री इन्द्रपुरी जी ॥


दोहा:-

इन्द्रपुरि मम नाम हैं, भोग बिलास निवास।

देखत ही बनि परत है, बात कहौं मैं खास॥


चौपाई:-

सौ अश्वमेध यज्ञ जे करहीं। मम आवरण में सो पग धरहीं।

ध्यान में जोगी जो कोइ आवैं। पक्के होंय तो बचि कै जावैं।

जो कोइ ध्यानै में लूटि जावै। ते फिरि तन में अति दुख पावै।

हर दम मन में ब्यापी अबला। तन ह्वै गयो फूट जिमि तबला।

स्वप्न दोष होवै नित उनको। जिन बश कियो नही है मन को।५।

जीरन तन ह्वै देही छोड़ै। फिरि अच्छे कुल नाता जोड़ै।

फिरि हरि भजन में लागै भाई। तब बे पार होय भव जाई।

मो को दुख सुख ब्यापै नाहीं। हरि का भज करौं मन माहीं।

जाको जौन कार्य्य हरि दीन्हा। अज्ञा मानि शीश धरि लीन्हा।

या से दोष लगाय सकै को। हरि के बचन मिटाय सकै को।१०।