२६५ ॥ श्री जानकी दास जी ॥
लावनी:-
क्या राम श्याम तन लखन पीत तन धारी।
आये जँह सभा मँझार मोहनी डारी।
कानन में कुण्डल मकुट शीश पर धारी।
केशरि को तिलक बिशाल भाल छबि न्यारी।
भूषन औ बसन बिचित्र अंग में धारी।
पट पीत कमर में कसे खूब सम्भारी।
तरकस में शर हैं भरे पीठि पर डारी।
बाँये काँधे में धनुष पड़ा झलकारी।
गजमुक्ता कौस्तुभ मणी नील मणि प्यारी।
अहि मणि औ हीरा लाल माल गले धारी।१०।
है सब मंचन से मंच ऊँच एक भारी।
तापर मुनि बैठे विश्वामित्र सुखारी।
तँह दहिने भाग में राजत अवध बिहारी।
बांये दिशि लक्षिमन पीत बरन छबि प्यारी।
संसार में चारों तरफ खबरि यह जारी।
नृप रच्यो जनक पुर धनुष यज्ञ अति भारी।
जो तोरै शिव को धनुष बरै सुकुमारी।
यह प्रण नृप अपने उर में लियो टिकारी।
नृप आये तँह पर देश देश के भारी।
असुरौ आये तँह बैठे नर तन धारी।२०।
करि करि हारे सब ज़ोर सके नहिं टारी।
लागी सब के मुख मसी गये हिय हारी।
रावण बाणासुर धनु पर कर नहि डारी।
जिन शिव जी के कैलाश को लीन उपारी।
यम काल इन्द्रगे हार ऐसा भट भारी।
लखि कै चट दोनौ भवनन गये सिधारी।
बन्दी गण बरनन कीन्हों सभा मँझारी।
तँह जनक राज ने रिसि कर बचन उचारी।
भइ वीरन मही बिहीन सुता रहै क्वारी।
सुन लखन नृपति के बैन क्रोध कियो भारी।३०।
बोले उठि सभा मँझार सुनो नर नारी।
यह अनुचित सभा के मध्य जनक कहि डारी।
रघुवँशी जँह चलि जाँय सकैं नहि हारी।
भे हमरे कुल में बड़े बड़े बल धारी।
हम उनकी कृपा ते काल की जीभ निकारी।
अभिमान न नेकौं करौं सत्य व्रत धारी।
हरि के परताप से भुजन में है बल भारी।
श्री रामजि आज्ञा देंय तो खेल प्रचारी।
ब्रह्माण्ड को गेंद समान लेंव कर धारी।
कच्चे घट के सम फोरौं लगै न वारी।४०।
मूली सम तोरौं पर्वत मेरु उखारी।
यह धनु पुरारि का तृणवत कर में धारी।
शत योजन जावों पौन समान उड़ारी।
क्या चाप हरे मखमल की दिब्य है प्यारी।
छुवतै आपै चढ़ि जाय बड़ी सुकुमारी।
फिरि वाँस करिल सम तोरि के धनु महि डारी।
परताप प्रभु का उर में रह्यौ समारी।
हरि की मैं शपथको खाय ये बचन उचारी।
करि के दिखलावों नहीं तो होवै ख्वारी।
धनु बाण बसन औ भूषन त्यागौं झारी।५०।
मामूली कपड़े पहिन के बनौं भिखारी।
सुनि बचन लखन के कोप भरे अति भारी।
जारी........