२६५ ॥ श्री जानकी दास जी ॥
जारी........
घबड़ाने गज बाराह हिली महि सारी।
हरषे मुनि विश्वामित्र राम धनुधारी।
करि नैन सैन श्री राम लखन बैठारी।
तब विश्वामित्र ने राम कि ओर निहारी।
फिरि कह्यौ उठौ अब तोरौ धनु धनुधारी।
मिटि जाय जनक परिताप भक्त हितकारी।
सुनि बचन गुरु के उठि चरनन सिरधारी।
धनुवान व तरकस गुरु ढिग धर्यो उतारी।६०।
चलि दियो धनुष की ओर अतुल बलधारी।
मानहुँ मयन्द मद मस्त चलत पग धारी।
पहुँचे जब धनु के पास में अवध बिहारी।
तब सिया पै एक निगाह कृपानिधि डारी।
देख्यो अति प्रेम में बिकल हैं जनक दुलारी।
चट धनु दहिनाय उठाय लीन बल धारी।
डरि चाप आप ही चढ़ी शब्द भनकारी।
प्रभु दोनो गोसन हाथ दियो सरकारी।
जस चह्यो नवावन टूटि गयो धनु भारी।
हरि दोउ खण्डन को उत्तर दक्षिण डारी।७०।
उड़ि गयो एक सुर पुर को लगी न बारी।
धँसि गयो दूसरा धरनि पताल सिधारी।
तँह भयो शब्द ज़ोर से हा हा कारी।
सब लोकन पहुँच्यो जाय अकाश मँझारी।
बरसावैं फूल औ गावैं साज बजारी।
गन्धर्व औ किन्नर संग अप्सरा प्यारी।
नाचैं तन मन ते हर्षि ताल दै तारी।
श्री जनक सुनयना सिया ग्राम नर नारी।
बहु भूप औ विश्वामित्र लखन सुख भारी।
फिरि सिया लीन जय माल दोउ कर धारी।८०।
चलि भईं सखी संग दस सहस्र सुकुमारी।
सब गावैं मधुरेश्वरन मंगलाकारी।
फिरि पहुँचि गईं प्रभु के ढिग जनक कुमारी।
जय माला गले में डारि चरण शिर धारी।
उठिकै फिरि मुनि के चरन परी सुख भारी।
मुनि दीन्हयों आशीर्वाद शीश कर धारी।
सिय सदा सोहागिन रहौ जक्त हितकारी।
फिरि चलीं सखिन के संग सिया सुकुमारी।
माता के गोद में जाय के बैठि गईं प्यारी।
तँह परशुराम गे आय भीर लखि भारी।९०।
चारों दिशि देखा सब की ओर निहारी।
पूछा तब जनक से कैसी सभा बिठारी।
सब हाल जनक कहि दीन कीन रिसि भारी।
धनु को तोरयौ है कौन उसे हति डारी।
मोको नृपदेव बताय कौन बल धारी।
जो नहीं बताओ तो देहौं दुख भारी।
उलटौं जँह लगि है राज्य भूमि तब सारी।
सुनि बचन मुनि के जनक और नर नारी।
डरि गये कहैं बिधि ने बनि बात बिगारी।
असुरन औ दुष्ट महीपति मन सुख भारी।१००।
कहैं बदला मुनि धनु केर लेंय हरि मारी।
तँह लछिमन उठि कै मुनि को खुब फटकारी।
नहिं चली चतुरता एकौ हिम्मत हारी।
कियो शान्त लखन को नैन सैन हरि मारी।
जारी........