२८० ॥ श्री भगण जी ॥ चौपाई:- भगण कहैं भजु भाँड़ा फूटै। द्वैत भाव सब तन से छूटै।१। तब दरशैं घट घट के बासी। आदि अन्त के जो अविनाशी।२।