३२० ॥ श्री हरितीर्थ जी ॥
पद:-
जागता है वही जग में जो सतगुरु चरण अनुरागी।
कर्म शुभ अशुभ हत ह्वैगे नाम की धुनि जहां जागी।
छटा छबि छा गई सन्मुख प्रेम तन मन गयो पागी।
ध्यान परकाश लय जान्यो परम पावन वो बड़भागी।
अन्त में अचल पुर जावैं स्वप्न जिमि देर नहिं लागी।
कहैं हरि तीर्थ नर तन यह बिना सुमिरन के हो बागी।६।