३६६ ॥ श्री गोपाल दास जी ॥
(अवध वासी)
चौपाई:-
हरि की कीन मानसी पूजा। और देव पूज्यों नहिं दूजा।
दर्शन बहुत बार मोहिं दीन्हा। परगट ह्वै कर बोले चीन्हा।
अन्त समय हरि पुर भा बासा। तहँ सब भेद मिला मोहिं खासा।
श्री नारद जी वहँ पर आये। पूछेन हाल भेद बतलाये।
यह है ध्यान कल्पना केरा। यहँ पर या से मिला बसेरा।५।
सबै कल्पना जब मर जावै। तब साकेत में बासा पावै।
मन सूरति के संग में लागै। नाम कि धुनि में तब वह पागै।
तब वह पावैं उत्तम ध्याना। सन्मुख दर्शैं कृपा निधाना।
जब लय में वह पहुँचै जाई। तब नहिं रूप नाम सुख आई।
सुधि बुधि रहै न का बतलावै। आवै लौटि रूप धुनि पावै।१०।
दोहा:-
काक भुशुण्डी करत नित, प्रात समय यह भाव।
बाल रूप हरि दर्श दैं, पूरण करते भाव॥
उनकी सरबरि को करै, अजर अमर हैं जान।
माया ब्यापि सकै नहीं, कबहूँ उनको मान॥
नाम प्रभाव क जानि कछु, हरि यश करते गान।
बांचैं जौन चरित्र को, सो समुहे दर्शान॥
श्री नारद जी के बचन सुनिकै मिटिगा रोष।
मुक्ति भक्ति गति तब मिलै, पावै नाम क कोष॥
कहैं दास गोपाल, नाम कि गति अति ऊँच है।
जानि के होय निहाल, सोई जग से कूच है।५।