४३८ ॥ श्री राम सुन्दर दास जी ॥
पद:-
एक मास निज गमन के पहले जग हित प्रभु यह कीन्ह बिचारा।
श्री अवध में श्री हनुमान कि प्रतिमा प्रतिमा निज हरि हाथ पधारा।
श्याम पाषाण कि प्रतिमा सुन्दर श्री विश्वकर्मा आय सँवारा।
सुर मुनि को बरदान उन्हैं यह छिन में रच देवैं जग सारा।
बड़ी भीड़ स्थापन में भइ सुर मुनि कीन्ह्यो जय जय कारा।५।
चारौं बेद कृत्य करवायो तीनि दिवस भयो हा हा कारा।
पवन तनय की शक्ति मूर्ति में भई प्रवेश मन्त्र के द्वारा।
बोली मूर्ति काह आज्ञा है तब हरि कह्यो हरो जग भारा।
ब्रह्मा जी के दिन भर रहने की आशिष दै शिर पर कर धारा।
श्री कलियुग के अन्त के प्राणिन मूरति जानौ अंगुल वारा।१०।
भूषन बसन स्वर्ण मणि मोती हय गज धेनु दीन्ह कर तारा।
याचक सकल अयाचक तन मन अवध में छायो हर्ष अपारा।
भाँति भाँति पकवान मिठाई मेवा फल पायो नर दारा।
पशु पक्षी जल जीव बिपिन के पायो मोहन भोग अहारा।
जाको जैस अहार हमेशा वैसै वाको स्वाद डकारा।१५।
धरती अगिन अकाश पवन जल दिब्य रूप धरि बने सुआरा।
सुर मुनि लोक देश पुर बन गिरि सागर सरितन भइ ज्योनारा।
असुर नाग जड़ तन नर धारयो लखि शारद फण पति हिय हारा।
यह आनन्द नहिं वरणि सेरावै हरि की लीला अपरम्पारा।
तन मन प्रेम से दर्शन पूजन करै जौन होवै भव पारा।२०।
दोहाः- कोस चौरासी अवध में बरसायो सुर फूल।
हाट बाट द्वारे भवन सम सोहैं शुभ फूल।१।
राम नाम को जानि ले सतगुरु से जो कोय।
राम सुन्दर दास कह चरित लखै यह सोय।२।