४४१ ॥ श्री लोना चमारी जी ॥
चौपाई:-
मारन वशीकरन उच्चाटन। आकर्षन मोहन स्थम्भन।
नर नारिन पाषाण बनाना। पशु पक्षी करि उन्है चलाना।
मन्त्र से उनको खाक बनाना। या पढ़ि मन्त्र उन्हैं पगलाना।
छिन ही में अन्तर ह्वै जाना। बनि कै चील्ह अकाश उड़ाना।
चाटक नाटक बहु बिधि जाना। कीन्ह पाप सोई मन माना।५।
एक समय रुक्माङगद स्वामी। मिलिगे मोको अन्तरयामी।
कह्यो कि या से नहि कल्याना। अन्त परै तोहिं नर्क को जाना।
सब मन्त्रन में राम रमें हैं। याही से सब मन्त्र थमे हैं।
नर्क क दृश्य दिखायो भाई। लखि मैं हाय हाय चिल्लाई।
कहते दृश्य गई दुख दाई। शान्ति तबै तन मन को आई।१०।
तब हम से बोले गुरू ज्ञानी। राम नाम है सब गुन खानी।
मन ही मन यह सुमिरन करिये। अन्त समय बैकुण्ठ सिधरिये।
पाप कर्म कीन्हें जो भारी। सो सब नाम देय करि छारी।
श्री गुरु अज्ञा शिर धरि लीन्हा। मन ही मन हरि सुमिरन कीन्हा।
दया मातु अन्तर में जागी। तन के चोर गये सब भागी।१५।
दोहा:-
अन्त समय चढ़ि यान, हरि पुर मैं पहुँचत भई।
लोना करै बखान, हरि पुर है मंगल मई।१।
या संसार में आय कर, राम नाम भजि लेय।
लोना कह सो अन्त में, हरि पुर बैठक लेय।२।