४६२ ॥ श्री सोंटा दास जी ॥
पद:-
देय फल चारि नर तन यह इसे करि पाप क्यों खोवै।
अन्त में पाइहै यमपुर पड़ा कल्पों वहां रोवै।
करै सतगुरु भजै हरि को पार भव सिन्धु सो होवै।
ध्यान धुनि नूर लै जानै कर्म शुभ अशुभ को धोवै।
लखै सिय राम को हरदम प्रेम संग मन को कसि नोवै।
दास सोंटा कहै प्राणी वही साकेत चलि सोवै।६।