४६३ ॥ श्री कर्कट दास जी ॥
पद:-
करूणा वरुणालय को भजिये बिरथा क्यों आयु बितावत है।
अन्त समय कोइ काम न दें जिनसे तू नेह लगावत है।
नहि कोई रहा न रहैगा कोई फिरि नाहक गाल बजावत है।
अनुपम अमृत तजि के प्यारे अब काहे हलाहल खावत है।
परिणाम मिलै आखिर इसका यम धाम में चलि दुख पावत है।
मानुष तन है यह अति दुर्लभ सुर या के हित ललचावत है।
जेहि हेतु मिला सो करत नहीं मुख में नित मसी लगावत है।
इन्द्रिन को साधन कीन्हे बिना कोई सत मार्ग न पावत है।
सतगुर करि मुद मंगल भरिये काहे को देर लगावत है।
धुनि ध्यान प्रकाश औ लय मिलिहै सुर मुनि सब दर्श दिखावत हैं।१०।
ब्रह्म अगिन में कर्म शुभा शुभ जरि जाँय द्वैत बिलगावत है।
षट चक्कर भेदन ह्वै जावैं सातौं फिरि कमल फुलावत हैं।
कुण्डलिनी जाग्रत होय तबै सब लोकन माहिं घुमावत है।
सियराम कि झाँकी क्या बाँकी हर दम सन्मुख छबि छावत है।
जियतै में मुक्ति भक्ति को लै तन तजि साकेत सिधावत है।
कर्कट दास केरी बिनती जो मानि जाय सो जावत है।१६।