४७३ ॥ श्री बीर भद्र जी ॥
दोहा:-
जिस विद्या से हरि मिलै, वह विद्या सिख लेय।
रोम रोम से नाम धुनि हर दम दम दर्शन लेय।१।
सुर मुनि खेलें संग में हंसि हंसि के बतलाय।
ध्यान समाधी होय तब महा प्रकाश दिखाय।२।
आवागमन नसाय तब जब यह मारग जान।
सुरति शब्द की जाप है अजपा या को मान।३।
बीर भद्र कहँ सुनो सुत सतगुरु बिना न होय।
संसकार जेहि ठीक हों सतगुरु पावै सोय।४।