२४ ॥ श्री वतावन शाह जी ॥
पद:-
किया था कौल सुमिरन का गरभ में सो नहीं करता।
वृथा बातों को कहि सुनि के रात दिन क्यों बका करता।
मन के मोदक भला खाकर किसी का पेट है भरता।
अन्त जब नर्क हो जाना वहां रोवत नहीं सरता।
ढूढ़ि सतगुरु लगा तन मन कर्म दोनों को नहिं जरता।५।
ध्यान धुनि नूर लै में जाय के जियतै नहिं मरता।
सामने राम सीता की छटा हर दम नहीं लखता।
सुरति निज शब्द पर धर के वतावन कह नही ठरता।८।