८२ ॥ श्री कटोरी जान जी॥
पद:-
पढ़ि सुनि कै उमड़न लगैं छोड़ै नहि निज बानि।
सार शब्द पायो नहीं जिमि उषर को पानि।
पढ़ि सुनि कै कंठाग्र करि सभा में बोलत बात।
सार शब्द पायो नहीं जिमि कुंजर के दांत।
पढ़ि सुनि कै ज्ञानी बनै तन मन भरा अजाव।५।
सार शब्द पायो नहीं जिमि बेनी रतलाव।
पढ़ि सुनि कथनी खुब कथत ठगन से जोड़े नात।
सार शब्द पायो नहीं जिमि पीपर के पात।
पढ़ि सुनि कै चेला करत बने गुरु महाराज।
सार शब्द पायो नहीं जैसे सड़ा अनाज।१०।
पढ़ि सुनि मीठे वचन कहि नैन फेरि चहुँ ओर।
सार शब्द पायो नहीं उन्हैं जानिये चोर।
पढ़ि सुनि तन चमकावहीं आदर करते लोग।
सार शब्द पायो नहीं जिमि वेश्या का भोग।
पढ़ि सुनि आयु बिताय दी तन मन कियो न खेद।१५।
सार शब्द पायो नहीं जैसे घट में छेद।
पढ़ि सुनि कै हँसने लगै ऐसे नखरे बाज।
सार शब्द पायो नहीं बना चहै सिरताज।
पढ़ि सुनि कै अस बोलते जैसे मारत बान।
सार शब्द पायो नहीं घर घर खान औ पान।२०।
पढ़ि सुनि कै मौनी बने पाले सान औ मान।
सार शब्द पायो नहीं पूरै हैं शैतान।
पढ़ि सुनि बोझा लादि कै रहै दूर के दूर।
सार शब्द पायो नहीं जैसे पेड़ खजूर।
पढ़ि सुनि कै निन्दा करत ऊपर लादत पाप।२५।
सार शब्द पायो नहीं गांसे पर सन्ताप।
पढ़ि सुनि कै समुझावते आप चलत बेढंग।
सार शब्द पायो नहीं जानो उन्है भुजङ्ग।
पढ़ि सुनि आपस में लड़ैं मानहु लूटैं वित्त।
सार शब्द पायो नहीं उन्हैं समुझिये पित्त।३०।
दोहा:-
पढ़ि सुनि भरी प्रमाण उर बोलत बचन संभार।
सार शब्द पायो नहीं जैसे सड़ा अचार।१।
पढ़ि सुन उर में लीन भरि परमानन का कूप।
सार शब्द पायो नही जैसे टूटा सूप।२।
पढ़ि सुनि उपदेशन लगै, बांधि लीन क्या टोल।
सार शब्द पायो नहीं जैसे ढोल मे पोल।३।
पढ़ि सुनि के नंगे रहत, मीठे बोलत बोल।
सार शब्द पायो नहीं कीचड़ रहे टटोल।४।
सोरठा:-
पढ़ि सुनि करत ठगाय, पण्डित जी बहु जन कहैं।
सार शब्द नहिं पाय हैं वे जोंक रुधिर चहैं।१।
कहैं कटोरी जान, सतगुरु करि हरि को भजो।
तन मन करि कुरबान, तब तो जियतै में सजो।२।
पद:-
कटोरी जान कह कट्टर भक्त अबला पुरुष जे हैं।
ते सतगुरु के वचन गहि कर दीन बनि शांति बैठे हैं।
कसै कोई उन्हैं आकर कभी नेकौं न ऐठे हैं।
वही परकाश धुनि औ ध्यान लै में जाय पैठे हैं।
राम सीता सदा सन्मुख अन्त साकेत बैठे हैं।
जियति जिन कर लिया हासिल कटे भव जाल ठैठे हैं।६।