८७ ॥ श्री बसन्ती माई जी ॥
पद:-
घनश्याम राधिका सजा सिंगार बसन्ती।
मुरली भि रंग लई है क्या सरकार बसन्ती।
सखियां सखा भि सज गये एकतार बसन्ती।
घर घर के सज गये फिर नर नारि बसन्ती।
सब ने लिया है लेप तन में धार बसन्ती।५।
चलने लगी समीर त्रिविध ढार बसन्ती।
घर घर में भोजन छप्पन परकार बसन्ती।
हरि प्रेम से उसी दिन तय्यार बसन्ती।
साजों के सब ने रंग लिये ओहार बसन्ती।
गाने लगे क्या राग तन मन मार बसन्ती।१०।
बजने लगे संघ साज क्या गुमकार बसन्ती।
नूपुर बजै पगों में क्या झुनकार बसंती।
मृग मद कपूर केशर बेशुमार बसंती।
केंवरा गुलाब चन्दन संघ डार बसंती।
खुशबू तरह तरह की दै धार बसंती।१५।
रख दी जगह जगह पर बलिहार बसंती।
झोरी भरी अबीर गले डार बसंती।
कुम कुम मिला है जिसमे चमकदार बसंती।
मुठ्ठी भरैं औ सब तन सब मार बसंती।
दिन कर क हो गया तहां उजियार बसंती।२०।
पिचकारियों कि ठन गई क्या मार बसंती।
सब ओर छा गई है क्या बौछार बसन्ती।
ब्रज भूमि तरु भवन सब भे यार बसन्ती।
पशु पच्छी और जमुना जल धार बसन्ती।
जल जीवों पर गया चढ़ि झलकार बसन्ती।२५।
चौरासी कोस में मचा यह कार बसन्ती।
सुर मुनि को हरि ने रंग दिया करि प्यार बसन्ती।
सब हो गये मगन करैं जै कार बसन्ती।
हर जगह श्याम श्यामा हर बार बसंती।
नाचैं औ गावैं मारैं क्या पिचकार बसंती।३०।
क्या कर रहैं हैं सब संघ खेलवार बसंती।
व्यंजन घरों में खा रहे पट टार बसंती।
नर नारि छवि लखैं बने उर हार बसंती।
सब की तरफ़ हंसैं करैं दीदार बसंती।
मुरली बजाय बांह गले डार बसंती।३५।
राधे के चूमते हैं क्या रुखसार बसंती।
मन सिजरती कि गति मती दीगार बसंती।
एक टक खड़े लखैं बहै मुख लार बसंती।
सब में रमे औ सब से फिर न्यार बसंती।
उत्पति औ पालन करतल संघार बसंती।४०।
बरने को शेष शारद गे हार बसंती।
लीला है जिनकी अद्भुद अपरम्पार बसंती।
सतगुरु करो लखो नित सुखसार बसंती।
क्यों खो रहे हो तन को बेकार बसंती।
परकाश ध्यान लै धुनि रंकार बसंती।४५।
जियतै में जानि काटिये भव जार बसंती।
सुर मुनि के सब सही हो परिवार बसंती।
खुद भूल से हुये हो गुनहगार बसंती।
सब जन वचन ये उर में लो धार बसंती।
सुमिरन करो हरि नाम को निसिवार बसंती।५०।
मन को करो तो काबू चुपकार बसंती।
जारी........