११६ ॥ श्री लाला शिवदयाल जी ॥
पद:-
छरिक कै घूमि ठाढ़ा ह्वै भौंह दोनों को मटकावै।
कमर को दे झुका मोहन दोउ कर भाव बतलावै।
अधर पर बाँसुरी धर के तान मधुरी से क्या गावै।
छमा छम दे बजा नूपुर चश्म करि बंद मुसक्यावै।
दौरि राधे क करि गहि ले रहस मंडप में टहलावै।५।
सखा औ सखी हैं जितने रूप उतने ही बनि जावै।
प्रेम में सब पगै नाचैं बोल मुख से न कोइ पावै।
साज बहु विधि बजैं सँग में ताल स्वर तान धुनि छावै।
करै मुरशिद लखै हर दम जियति भव पार ह्वै जावै।
ध्यान धुनि नूर लै जानै रूप सन्मुख छटा छावै।१०।
देव मुनि आय दें दरशन विहँसि नित उनसे बतलावैं।
अंत तन तजि सिंहासन चढ़ि जाय हरि पुर न फिरि आवै।१२।
शेर:-
हरि इश्क के मरीज का तवीव क्या करै।
गुलशन में जैसे गुल खिले स्वगँध क्या करै।१।