१२५ ॥ श्री लाला विजय बहादुर लाल जी ॥
पद:-
जे मुरशिद को बसर समुझैं उन्हैं जानो हुये बागी।
यहाँ पापों का ले तोशा वहाँ तन पर चलै साँगी।
आने जाने के चक्कर से न छूटै क्योंकि है दागी।
जल रही हर समै यारों कठिन भव सिन्धु में आगी।
बचै सच्चा जो हो चेला न रक्खा द्वैत की टाँगी।५।
उसी के पास तप धन है बढ़ैगा नहिं कभी खाँगी।
रहै मुरशिद की सेवा में प्रेम तन मन छिमा माँगी।
ध्यान धुनि नूर लै पाकर रूप सन्मुख लियो तागी।
देव मुनि आय दें दर्शन मिलै सब के चरन लागी।
सदा निर्वैर औ निर्भय वही योगी वही त्यागी।१०।
वही दरवेस कामिल है वही ज्ञानी औ अनुरागी।
दीनता शांति की मूरति अंत हरि पुर चलै भागी।१२।