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१२६ ॥ श्री लाला बहादुर लाल जी ॥


पद:-

हरि प्रेम के भूखे व प्यासे प्रेम तुम करते नहीं।

प्रेम खेतों में उगै नहिं हाट बाट बिकै नहीं।

प्रेम अपने पास है वह मार्ग तुम जानत नहीं।

मुरशिद करो पावो पता घट ही में चट उलटै वही।

ध्यान धुनि परकाश लै औ रूप सन्मुख हो सही।५।

देव मुनि सब दर्श दें फिर देर लागै क्या कहीं।

विचर कर सब देख लो यह तन जगत औ है मही।

अंत हरि का धाम हो जो नर शरीर क फल चही।८।