१३७ ॥ श्री लाला राज बहादुर जी ॥
पद:-
छूटै कैसे त्रिगुण की गाँठी।
मन घोड़ा काबू जब होवै दौरत जो बिन काठी। त्रिगुण की०॥
जाने बिना भेद को पावै जिमि कोथा में साठी। त्रिगुण की०॥
विधि हरि शम्भु के अंश हैं तीनों रहै जक्त को माठी। त्रिगुण की०॥
आगे बढ़न देत नहि जीवहिं पहनत निज निज भाठी। त्रिगुण की०॥
सतगुरु करि तब इनहिं भगावो पकड़ि शब्द की लाठी। त्रिगुण की०।६।