१३८ ॥ श्री लाला बम बहादुर जी ॥
पद:-
तीरथ वर्त करैं बनि साधू मन विषयों में जावैं।
अन्त में पकड़ि नर्क यम डारैं महा कष्ट तहँ पावैं।
जैसे गीध अकाश में घूमत दृष्टि ढोर पर लावै।
का वह उड़े से सिध्द जात ह्वै सड़ा मास नित खावै।
जैसे शूकर श्वान औ कागा विष्टा लखि चट धावै।५।
खीर त्यागि दे ताहि न छोड़ै हर्षित मन से पावै।
सतगुरु के बिन मन न होय वश जीव पड़ा चकरावै।
ध्यान प्रकाश समाधि नाम धुनि जब हत्थे में आवै।
तब वह मुद मंगल भा जानो रूप सामने छावै।
अनहद सुनै देव मुनि आवैं सब संग खेल मचावैं।१०।
नागिनि जगै चक्र षट बेधैं सातौं कमल फुलावै।
चन्द्र सूर्य दोउ एक में होवैं सुखमन घाट नहावैं।
विहँग मार्ग से जाय वही जो सूरति शब्द लगावै।
पच्छिम दिशि की खुलै केवाड़ी आपु में आपु समावैं।
हेरत आप हेराय गये जब कौन कहौ बिलगावै।
यह पद लीन चहै जो कोई तन मन प्रेम में तावै।१६।