१४० ॥ श्री गुट्टा माई जी ॥
पद:-
कारन अलवल मक्कर नखरा, ठन गन किरला करत मसखरा।
अधरम झूठ के बनि गे चखरा, बार बार जग में रहे चकरा।
तन तजि नर्क में लेते बखरा, बहुत जीव जहँ पर रहे टकरा।
भोजन करत समय करै टसरा, नमक हरामी क पहिने गजरा।
बे शरमी का सिर पर सेहरा, लाज क धोय बहाइन नजरा।५।
कटि में विषय क बाँधे रसरा, तन भा छीन करै मन रगरा।
चिन्ता चाह खड़ी दिन झगरा, चारौं तरफ़ से जाला पसरा।
तामें फँसे फटकते मगरा, सतगुरु बिन खोलै को डगरा।
द्वैत क लाग वहाँ है पटरा, या से खुलत न ज्ञान क कठरा।
चोरन मिलि सब कीन्हेव सखरा, यहि विधि दीन्हेव जीवहिं पकरा।१०।
जब यह धैना छूटै बछरा, तब सब मिटै जगत का दुखरा।
हरि सुमिरन में जो कोइ पिछरा, गुट्टा कहैं खाय सो खतरा।१२।
दोहा:-
मोटा पतरा तू नहीं, सदा एक रस जान।
गुट्टा कह सतगुरु बिना, तन निज लीन्हें मान।१।
हम तुम की रसरी कठिन, ता में बांधा जक्त।
गुट्टा कह निबुकै वही, जो हो सांचा भक्त।२।