१६० ॥ श्री कञ्जूस खाँ जी ॥
पद:-
सेवा मुरशिद की करने से मेवा मिलै।
नूर धुनि ध्यान लय रूप सन्मुख डटै॥
पहिले निज को मिटाना पड़ै भाइयों।
पीछे लो यह खजाना न बाटै घटै॥
त्यागि तन चढ़ि सिंहासन जहां से चलै।
जाय करके अमरपुर मगन ह्वै अटै॥
कहते कञ्जूस खाँ धन्य हैं शिष्य वह।
जो करैं काम शुभ पर न पीछे हटै॥
प्रेम परतीति तन मन लगाकर वशर
मूर्ति पूजन करैं रोज दीदार हो।५।
मूर्ति जिस देव की हो वही आ मिलै।
मीठे वचनों से बोलै करै प्यार हो॥
दस्त से दस्त गहि लेय उर में लगा।
पुत्र निज जान कर चूमै रुख्सार हो॥
कहते कञ्जूस खां चेति मुरशिद करो।
जियत सब जान लो क्यों गुनहगार हो।८।