१५९ ॥ श्री लाला राधिका शरन जी ॥
पद:-
आपु को आप गिरावत नीचे।
मन बहु रंगी किहेव न काबू जो निज ओर को खींचे।
हर दम तुम्हैं नचावत जग में मुख पर मारत पीचे।
सतगुरु करि हरि को नहिं सुमिरे पाप बेलि खुब सींचे।
दया धर्म को अधरम मानै कबहूँ न गयो नगीचे।५।
नर्क में ठौर ठेकान बनाये चलु जस आँखै मीचै।
हाय हाय की धुनि जँह जारी परे जीव बहु हीचे।
अति गहिरे जहँ हौज भरे हैं पीव मूत्र मल कीचे।८।
दोहा:-
सुमिरन दरशन हर समय, सो है पूरा भक्त।
कहैं राधिका शरन सो, लौटि न आवै जक्त॥