१६२ ॥ श्री चारि यारी शाह जी ॥
पद:-
प्रेम सरिता में परि ज्ञान बहि जात गिरि रोकि कौन पावै
धार बहै अति वेग की।१।
ध्यान परकाश धुनि लय व रूप हाथ लेव मुरशिद करि
सिर्फ़ गहो नाम तेग को।२।
दीन बनि धीर धरि तन मन एक करि पास हैं उघारी
चखौ कौसर की डेग को।३।
चारि यारी कहैं भाय सुर मुनि मिलैं आय देंय तुम्हैं हर्षाय
जय जय कार नेग को।४।
दोहा:-
प्रेम नदी अति अगम है, ज्ञान करारा जान।
उमड़ै तहँ कटि जाय बहि, सत्य वचन लो मान।१।
कहैं चारि यारी बनौ, सेवक स्वामी केर,
निर्भय औ निर्बैर हो, छूटि जाय जग फेर।२।