१६७ ॥ श्री मुंडी माई जी ॥
पद:-
भक्त पढ़ि सुनि के बनिगे रचैं ढोंग क्या लोग पूजैंगे
सर भार हो पाप का।
त्यागि तन जाय दोज़ख में कल्पों सड़ै फेरि आवैंगे जग
तन मिलै साँप का।
हों बुरे काम नेकी क तन है नहीं काट लें दौड़ कर
नहिं पता चाप का।
दूसरों के बिलों में दखल कर रहे मन पै परदा पड़ा
क्रोध के झाँप का।
मूस मेढक मछलियाँ औ चिड़ियां गटक लें सितावी से
उनको उदर में पका।
करके सतगुरु कहैं मुण्डी सुमिरन करै तब ठेकाना मिलै
निज माई बाप का।६।