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१७२ ॥ श्री पण्डित अवधू जी ॥


पद:-

उदर में कवर बनायो यारों।

जीवन मारि पाप शिर ओढ़त हृदय दया नहिं धारो।

पिता के वीर्य्य मातु के रज से यह तन जानत ढारो।

ऐसी घृणा कि वस्तु जानि फिर पावत मनहिं विचारो।

अन्त समय यम नर्क में डारैं कल्पन हाय पुकारो।५।

कौन सहायक होय तुम्हारा चलत न कछु तहँ चारो।

अब हीं मानो कहा चेति करि निज फिरि सुरति सम्हारो।

सतगुरु करो ढूँढ़ि दुख जावै मिटि जाय घट अँधियारो।

ध्यान प्रकाश समाधि नाम धुनि हरदम रूप निहारो।

या विधि जानि मानि सुख लूटौ आपु तरौ औ तारो।१०।

शान्ति दीनता सत्य प्रेम ते तन मन प्रभु पर वारो।

अवधू कहैं ठीक यह मारग तब होवै निस्तारो।१२।