२१५ ॥ श्री सलामत शाह जी ॥
पद:-
हे प्रभु हाथ तुम्हारे लाज।
मैं अति अधम मलीन मन्दि मति आपु गरीब नेवाज।
परम पवित्र करत पतितन को भक्तन के शिरताज।
सुर मुनि वेद विरद नित गावत भव सागर के जहाज।
नर तन पाय गह्यौ जिन तव पद तिन सब साज्यौ साज।५।
जे भूले ते जन्म मरन के खेल में नाचत आज।
नर्क में यम ऐसा दुख देते जैसे लवा को बाज।
शिर पर लोह क दण्डा मारत मानहु टूटी गाज।
नेको दया नहीं तन मन में निर्भय उनका राज।
गारी दै दे टांगै चीरत जैसे वसन बजाज।१०।
चारों तरफ़ से पहरा कर्रा कोई सकत न भाज।
सतगुरु करि गहि शान्ति दीनता तिन सारयौ निज काज।१२।