२१६ ॥ श्री रंक शाह जी ॥
पद:-
हे प्रभु लाज तुम्हारे हाथ।
पाप कि आँच में मै नित झुलसत असुरन बाँध्यौ साथ।
चहुँ दिश ते हर दम रहैं घेरे तन मन डारयौ पाथ।
सुमिरन पाठ कीरतन पूजन केहि विधि करौं हौं अनाथ।
करत अपावन को हौ पावन सुनिये दीना नाथ।५।
इन सब को समुझाय शान्ति करि कीजै मोहि सनाथ।
काहे देर करत किरपा निधि त्रिभुवन पति सियनाथ।
नर तन का फल दीजै स्वामी पद सेवौं धरि माथ।