३२८ ॥ श्री रूप कली जी ॥
पद:-
सतगुरु करि तन मन वारी। सुमिरौ श्री अवध बिहारी॥
लय ध्यान धुनी उजियारी। सुर मुनि संग खेल मचारी॥
अनहद धुनि सुनिये प्यारी। सब असुरन जीतौ पारी॥
पीजै अमृत सुखकारी। जो गगन ते सोता जारी॥
छवि जिनकी जग से न्यारी। ते सन्मुख रहैं सदारी।१०।
जियतै लूटौ सुख भारी। तब सकौ और को तारी॥
जो हमने विनय उचारी। सो सुनि लो मंगलकारी॥
यह विनय जौन उर धारी। सो कार्य्य आपनो सारी।१६।