३८० ॥ श्री धर्म सिंह जी ॥
दोहा:-
कबिता ज्योतिष व्याकरण अन्त देंय नहि काम।
यह संसार क खेल है जानि लेव हरि नाम।१।
चौपाई:-
सतगुरु करि सुमिरन विधि जानो। तन मन प्रेम से ताना तानो।
ध्यान धुनी परकाश समाधी। तै करि मेटो सकल उपाधी।
कुण्डलिनी जाग्रत ह्वै जावै। सब लोकन कै दरश करावै।
षट चक्कर वेधैं घुमरावैं। सातों कमल फूल तब जावैं।
उड़ै सुगन्ध कहौ का मुख से। हर दम मस्त रहौ तब सुख से।५।
सुर मुनि शक्तिन संघ बतलावौ। अनहद सुनो अमी रस पावो।
सिया राम प्रिय श्याम रमा हरि। सन्मुख निरखो जियति जाव तर।
धर्म सिंह कहैं मानो बाता। करि अभ्यास लखौ अब ताता।८।
दोहा:-
देरी करना ठीक नहीं धर्म सिंह कह भाय।
ना मालुम किस समय में काल पकड़ि ले जाय।