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४२८ ॥ श्री रंग लाल जी ॥


पद:-

किसमत उसी की अच्छी सतगुरु जिसे मिला है।

धुनि ध्यान नूर जाना चलि शून्य में पिला है।

अनहद सुनै मधुर घट सुर मुनि के संग हिला है।

प्रिय श्याम सामने भे करना न कुछ गिला है।

तन मन व प्रेम तीनों एकै में तब सिला है।५।

निर्वैर और निर्भय आनन्द का टिला है।

तन त्यागि जाय निजपुर हरि रूप बनि खिला है।

जहं पर न दुःख पहुँचै ऐसा अगम किला है।८।