४२९ ॥ श्री रंग नाथ जी ॥
पद:-
कर्म करि निष्कर्म होवै उपासना ते चाह मरै।
ज्ञान ते गैव गली खुलि जावै सो प्रानी भव में न परै।
ध्यान प्रकाश समाधि नाम धुनि रग रोवन ह्वै कर निकरै।
अनहद सुनै देव मुनि आवैं सब के चरनन शीश धरै।
नागिन जगै चक्र सब वेधैं तन मन कमलन महक भरै।५।
निर्भय मस्त अमी रस चाखै गगन ते हर दम जौन झरै।
सीता राम कि झांकी बांकी सन्मुख रहै न नेक टरै।
अन्त त्यागि तन निजपुर बैठै फिर जग में काहे विचरै।८।