४३२ ॥ श्री दशरथ लाल जी वैश्य॥
पद:-
शंकर शतनाम जपत जो हैं सतगुरु करि सो सुमिरन कीजै।
धुनि ध्यान प्रकाश समाधी हो सन्मुख सिया राम को लखि लीजै।
मुनि देव मिलैं घट साज सुनो अमृत अनुपम टपकै पीजै।
जियतै निर्मल निर्वैर बनो बेकार में आयू क्यों छीजै।
यह सूरति शब्द क मारग है तन मन जहं एक रंग भीजै।
तन छोड़ि अन्त साकेत बसो जग में फिर काहे पग दीजै।६।