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४३४ ॥ श्री नर हरि जी ॥


पद:-

सुमिरो नाम जगत पितु मातु।

सतगुरु करि जप की विधि जानो मानौ मेरी बात।

ध्यान धुनी परकाश दशा लय होवै करतल तात।

सुर मुनि मिलैं सुनो घट अनहद प्रेम में जावो मात।

अमृत चखौ गगन ते झरता कबहूँ नाहिं सुखात।५।

श्यामा श्याम की झांकी सन्मुख निरखौ क्या मुसकात।

अन्त त्यागि तन निजपुर बैठो कौन करै फिर घात।

नर हरि कहैं अमोल पाय तन वृथा न काढ़ो दांत।८।