४३९ ॥ श्री वल्ली जान रण्डी ॥
पद:-
मुरशिद बिना भजन की मिलती नहीं गली।
जैसे बिना तरी के खिलती नहीं कली।
जिसने गहा शब्द को फूली वही फली।
मुख में नहीं धरौगे जब तक कि गुड़ डली।
गुड़ गुड़ कहे से मीठ मुख होवैगा किमि अली।५।
धुनि ध्यान नूर लय को जानि जाव घर चली।
जियतै में पाप ताप को डारो पगन मली।
सुर मुनि के होंय दर्शन भाखै तुम्हें भली।
अमृत पियो सुनो धुनि अनहद श्रवण ढली।
सन्मुख हों श्याम श्यामा सब से जो हैं वली।१०।
मानो कहा नहीं तो फिर अन्त में खली।
हरि का भजन किहे बिन कैसे वतन चली।
सिर पर सवार मृत्यु है एक दिन तुम्हें झली।
रग रग को कूट कर के तूरैं सबै नली।
जे जाय करके नर्क में देवैं तुम्है थली।१५।
जागो उठो ऐ बहिनों तब फिर न कोई छली।
है नाम हरि का सांचा कर्मन की गति टली।
सारे असुर उसी से जाते हैं चट दली।
तन मन व प्रेम करके जयतै में जो जली।
सो त्यागि तन बनैगी हरि रंग कह वली।२०।