४६८ ॥ श्री जगनी माई जी ॥
दोहा:-
पुरुष पराई नारि संग रमन करै भा भ्रष्ट।
नारि पराये पुरुष संग गमन करै हो नष्ट॥
पद:-
टीम टाम क्या करौ टिमाक। तन तो जरि ह्वै जै है खाक॥
राम नाम जप के हो पाक। तब हो गर्भ क रिन बेवाक॥
असुर सकैं तब तुम्हैं न ताक। शरमावें जिमि कटि गई नाक॥
सतगुरु बिना चलै नहिं चाक। कैसे छूटै तन मन झाक॥
अब ही बने फिरत हो बांक। नीक वचन सुनि लेत न सांक।५।
उर में धरी द्वैत की फांक। रेफ़ बिन्दु का मिला न आंक॥
खर सूकर कूकर औ काक। तोसे भला इहां त्रण पांक॥
मानु वचन ले आँखैं ढांक। सूरत शब्द में अपनी टांक।८।