५५७ ॥ श्री धड़ङ्ग शाह जी ॥
पद:-
भक्त के रक्षक शिव बजरंग।
सतगुरु करि हरि नाम जपैं जे सदा रहत तिन संग।
पांचौं चोर अजा फिर उनको नेक करैं नहि तंग।
निर्भय औ निर्वैर जियति हो जीति लेंय जग जंग।
ध्यान धुनी परकाश दसा लय जो निज कुल का ढंग।५।
सुर मुनि मिलैं सुनै घट अनहद अमी पाय हो चंग।
नागिन जगै चक्र हों चालू कमलन उड़ै तरंग।
राम सिया सन्मुख छबि छावैं श्याम गौर क्या अंग।
साका तिनकी चलै युगै युग होय न नेकौ भंग।
जानि के कोई अनजान बने हैं कोई रहते नंग।१०।
अट्ट सट्ट कोई बातैं करते कोई करैं खड़ङ्ग।
कोई मौन कोई मीठे स्वर कोई बोलत व्यंग।
कोई सटर पटर लै धरते तन सब धूरि धुरंग।
कोई सरपट ऐसे भागैं जैसे भगत तुरंग।
कोई फटे पुराने कपड़े पहिने लूले लंग।१५।
कोई सूर बहिर औ कोढ़ी बैठे पड़े अपंग।
कोई मोटे ताजे रहते कोई रहत झुरंग।
झोंपड़ी कोठरी तरुतर कोई कोइ मैदान सुरंग।
यह लीला उनकी लखि करके लोग कहैं बेढंग।१९।
अन्त त्यागि तन निज पुर बैठैं कहते सत्य धड़ङ्ग
दोहा:-
मीठा मेवा अन्न फल जो पावैं सो खांय।
सूरति हरि के नाम पर कहैं धड़ंग सुनाय।१।
भक्तन की महिमा अगम कौन सकै बतलाय।
कह धडंग मिलि जांय जहं परै पगन पर धाय।२।