५६० ॥ श्री शखरा शाह जी ॥
पद:-
हलधर श्याम सखन को लै संग खेलैं क्या चंदि भभरा जी।
पहिले चोर बनैं हरि आपै मूंदैं शिर मुख कपड़ा जी।
हलधर सखा सबै हंसि हरि के सिर पर मारैं थपरा जी।
पूछैं सब पहिले को मारिस झूंठ किह्यो मति झगरा जी।
हरि तब कहैं मनसुखा सारो पहिले मारि के पछरा जी।५।
तब सब कहैं सत्य हरि भाख्यो यह चलाक का गठरा जी।
पकरि के सबहुन चोर बनायो नैन न मूंदै अकरा जी।
तब खम्भा के बल ठढ़ि आयो कटि कस रेशम रसरा जी।
ढीला सब ने खेल करन हित बांधा जाय न टकरा जी।
तब हूँ कर पग दहिन चलावैं थूंकै सब पर बिगरा जी।१०।
तब हलधर लै काली कमरी शिर पग तक दियो झवरा जी।
तब चट बैठि कै रोदन मचायो खूब दिखायो नखरा जी।
स्वांसा साधि के शान्ति बैठिगा जैसे बनिगा लकश जी।
तब हरि कह्यो चलौ निज निज घर यह तो बड़ा मसखरा जी।
दांव न देहै मक्कर कीन्हें बिना खवाये खतरा जी।१५।
परा रहन देव छेरयो मति कोई कब तक करिहै टसरा जी।
सुनि हरि बैन गये सब गृह गृह कमरी उलटि के सपरा जी।
रसरा छोरि कमर से लीन्ह्यौ लै कमरी ग्रह डगरा जी।
सच्चे प्रेमी सब श्री हरि के खान पान में वखरा जी।
सतगुरु करौ लखौ यह लीला टूटै द्वैत का पटरा जी।२०।
ध्यान प्रकाश समाधि नाम धुनि सुनो भगैं सब झगरा जी।
सुर मुनि मिलैं बजै घट अनहद पिओ अमी भरे गगरा जी।
सन्मुख हलधर श्याम सखा सब रहैं न होवै अतरा जी।
अन्त त्यागि तन निजपुर बैठो जग छूटै जिमि कतरा जी।
नर तन पाय जियति सुख लूटौ बिनय करैं यह शखरा जी।२५।