५६७ ॥ श्री जल्लाद शाह जी ॥
पद:-
मंजिले मकसूद तक जाना चहै सो जा सके।
मुरशिद से कूचा जान कर मन को जहाँ ठहरा सके।
धुनि ध्यान लय परकाश पाकर रूप सन्मुख छा सके।
अमृत चखै अनहद सुनै सुर मुनि मिलैं बतला सके।
जियतै में तै कर लेय जो सो और को सिखला सके।
छोड़ि तन चलि प्रेम पुर बैठै न जग चकरा सके।६।