५८४ ॥ श्री छोटकऊ सिंह जी ॥
पद:-
मान बड़ाई नर्क निशानी।
तन मन की नहिं होय एकता होती ऐंचा तानी।
अन्त समय यम करैं मरम्मत निकसै हाय की बानी।
प्राण निकारि चलैं लै पटकत कौन छुड़ावै प्रानी।
निज पुर में फिर भोग भोगावैं तन मल मूत्र में सानी।५।
या से सतगुरु करि हरि सुमिरौ बनि जाव पूरे ज्ञानी।
ध्यान प्रकाश समाधि नाम धुनि सन्मुख हरि महरानी।
अन्त त्यागि तन अचल धाम लो जहं अति सुख की खानी।८।