५६० ॥ श्री रंगीली जान जी ॥
पद:-
क्या अद्भुद रूप रंग हरि का हम कवन भांति वाको भाखैं।
कहती है जबां सुनते हैं श्रवण औ शोभा निरखि रही आंखै।
मुरशिद करि नाम ते जे वाकिफ़ ते दुनियां में फिर नहि काखैं।
धुनि ध्यान प्रकाश समाधि लिया औ रूप सदा सन्मुख राखैं।
सुर मुनि आते संघ बतलाते गहि द्वैत उठाय धरयौ ताखैं।५।
हैं सुनते अनहद घट बाजै अरु अमृत भी अनुपम चाखैं।
नागिन जागी औ चक्र सुधे सब कमल खिलै उलटी साखैं।
जे दीन भये ते पहुँचि गये सब त्यागि किया मन की माखैं।
कहती है रंगीली जान सुनो सूरति को शब्द में जे लाखैं।
ते जियतै सब तै करि लेवैं यह सत्य बचन तुमसे भाखैं।१०।